Saturday, July 31, 2010

श्रीवृन्दावन-महिमामृतं २.८८-९०


Photo by Gopi Dasi.

अहो पतितमुत्तरोत्तरविवर्धमानभ्रमौ
महारयमहोज्ज्वलप्रणयवाहिनीस्रोतसि ।
किशोरमिथुनं मिथोऽवशविचित्रकामेहितं
करोत्यहह विस्मयस्थगितमेव वृन्दावनम् ॥

अहो ! महावेगवती महा उज्ज्वल प्रणय नदी के स्रोत में उत्तरोत्तर क्रमशः वृद्धि प्राप्त आवर्त में निपतित श्री युगल किशोर परस्पर विवश होकर विचित्र काम चेष्टाओं का प्रकाश कर रहे हैं । अहह ! श्रीवृन्दावन उन्हें विस्मय विमुग्ध ही कर रहा है ॥२.८८॥





क्व यानं क्व स्थानं किमशनमहो किं नु वसनं
किमुक्तं किं भुक्तं किमिव च गृहीतं न किमपि ।
मिथः कामक्रीडारसविवशतामेत्य कलयत्
किशोरद्वन्द्वं तत् परिचरत वृन्दावनवने ॥२.८९॥

कहां यान वाहनादि है और कहां स्थान है ? क्या भोजन है, क्या वस्त्र है ? और क्या कहा, क्या खाया, क्या ग्रहण किया ? इन सब में किसी के प्रति कुछ भी लक्ष्य न रख कर परस्पर काम क्रीडा रस में ही जो श्री युगल किशोर विवश हो रहे हैं, श्रीवृन्दावन में उन्हीं की परिचर्या कर ॥२.८९॥





केशान् बध्नन्ति भूषां विदधति वसनं वासयन्त्याशयन्ति
वीणावंश्यादिहस्ते निदधति नटनायादराद्वादयन्ते ।
वेशाद्यर्द्धिं च कर्तुं कथमपि नितरामालयः शक्नुवन्ति
श्रीराधाकृष्णयोरुन्मदमदनकलोत्कण्ठयोः कुञ्जवीथ्याम् ॥२.९०॥

सखी वृन्द कुञ्ज वीथी में उन्मद मदन कला में उत्कण्ठित श्रीराधा-कृष्ण के केशों को बांधता हैं, भूषणों को सजाती हैं, वस्त्र पहिराती हैं । भोजन कराती हैं, वाणी वंशी आदि श्रीहस्त में धारण कराती हैं । नृत्य कराने के अभिप्राय से वाद्य यन्त्रों में आदर पूर्वक तान छेड़ती हैं, एवं किसी भी प्रकार वेश भूषादि की शोभा समृद्धि के लिये अतिशय यत्नवती होती हैं ॥२.९०॥



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