Friday, July 16, 2010

श्रीवृन्दावन-महिमामृतं २.४३-४५


काश्चित् स्वप्रिययुग्मचेष्टितदृशः स्तब्धा स्वकृत्ये स्थिताः
क्षिप्त्वान्यालिप्रवर्तिता दयितयोः काश्चित् सुखेलापराः ।
इत्थं विह्वलविह्वलाः प्रणयतः श्रीराधिकाकृष्णयो-
र्दासीरद्भुतरूपकान्तिवयसो वृन्दावनेऽन्वीयताम् ॥

कोई कोई अपने प्रियतम युगल किशोर की चेष्टा को देख कर अपने कार्य को भूल चुकी हैं, और कोई गोपी अपर सखि के अनुयोग से अपने कार्य में प्रवृत्त हो रही हैं, एवं प्यार युगल किशोर की सुन्दर क्रीड़ा में सहयोग कर रही हैं । इस प्रकार श्रीराधा-कृष्णके अत्यन्त प्रेम में विभोर अद्भुत रूप कान्त अवस्था युक्त सखियों का श्रीवृन्दावन में अन्वेषण कर ॥२.४३॥




एकं चित्रशिखण्डचूडमपरं श्रीवेणीशोभाद्भुतं
वक्षश्चन्दनचित्रमेकमपरं चित्रं स्फुरत्कञ्चुकम् ।
एकं रत्नविचित्रपीतवसनं जङ्घान्तवस्त्रोपरि-
भ्राजद्रत्नसुचित्रश्रोणवसनेनान्यच्च संशोभितम् ॥


एक तो अद्भुत मोर पुच्छ का चूड़ा धारणे किये हुए है, दूसरे के सिर पर श्री वेणी की चमत्कारी शोभा है । एक का वक्ष स्थल चन्दन चित्रित है, एवं दूसरे के वक्ष स्थल पर विचित्र काञ्चुली शोभित है । एक विचित्र पीताम्बरधारी है, एवं दूसरा जङ्घा पर्यन्त विस्तृत वस्त्र के ऊपर बहु रत्न मय विचित्र लाल वस्त्र से सुशोभित है ॥२.४४॥




इत्थं दिव्यविचित्रवेशमधुरं तद्गौरनीलं मिथः
प्रेमावेशहसत्किशोरमिथुनं दिग्व्यापि चित्रच्छटाम् ।
काञ्चीनूपुरनादरत्नमुरलीगीतेन संमोहयत्
श्रीवृन्दावनचिद्घनस्थिरचरं रङ्गे महाश्रीमति ॥


इस प्रकार दिव्य विचित्र वेश माधुर्य मण्डित चारों दिशाओं में विचित्र कान्ति विस्तार करते हुए गौर नील वपु धारी वे युगल किशोर , जो परस्पर प्रेमावेश में हास्य युक्त हैं, महा सौन्दर्य शाली रङ्ग में श्रीवृन्दावन की स्थावर जङ्गमात्मक चिद् घन वस्तु मात्र को ही काञ्ची, नूपुर झङ्कार में एवं मुरली के मनोहर गीत में सम्यक् प्रकार से मुग्ध करते हुए विराजमान है ॥२.४५॥


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