संवीतश्रीस्तनमुकुलयोरुल्लसद्धारयष्टीः ।
नानादिव्याभरणवसनाः स्निग्धकाश्मीरगौरीः
वृन्दाटव्यां स्मर रसमयी राधिकाकिङ्करीस्ताः ॥
जिनकी बेणियां झूल रही हैं, जिनकी जंघा विशाल हैं, कटिदेश क्षीण हैं, एवं जिनकी किशोर अवस्था है, जो अनेक दिव्य वसन भूषणों से सुसज्जित हैं, जो स्निग्ध कुङ्कुमवत् गौराङ्गिणी एवं रसमयी हैं, उन श्रीराधाजी की किङ्करी वृन्द का स्मरण करो ॥२.२२॥
कारुण्यौदार्यलीला स्फुरति भगवतः कोऽनुलाभोऽद्भुतोऽयम् ।
यद्वा नाश्चर्यमेतन्निजसहजगुणमोहितश्रीविधीशा-
द्यत्युच्चैर्वस्तु वृन्दावनमिदमवनौ यत् स्वयं प्रादुरास्ते ॥
आहा ! यह कैसे पुण्यों की शेष परिणति है ? आहा ! यह क्या भगवान् की आश्चर्यमय करुणा एवं उदारता की लीला स्फुरित हो रही है ? आहा ! कैसा अद्भुत लाभ ही है ! अथवा यह आश्चर्य का कुछ विषय नहीं, क्योंकि जो अत उत्कृष्ट वस्तु है एवं जिसमें लक्ष्मी, ब्रह्मा, शिवादि देवगण भी मोहित हो जाते हैं, वह भगवान् का स्वकीय सहज गुण ही श्रीवृन्दावन रूप में पृथिवी पर प्रादुर्भूत हुआ है ॥२.२३॥
नटन् गायन् प्रेम्णा पुलकितवपुस्तत्र विलुठन् ।
त्रुटत् सर्वग्रन्थीः स्फुरदतिरसोपास्तिपटिमा
कदाहं धन्यानां मुकुटमणिरेषोऽस्मि भविता ॥
निरन्तर गुणों का वर्णन करता हुआ श्रीवृन्दावन में इतस्ततः भ्रमण करते करते नाचता गाता हुआ, प्रेम में पुलकिताङ्ग होकर ब्रज रज में लुण्ठन पूर्वक सब ग्रन्थियों को तोड$अकर एवं स्फूर्ति प्राप्त अत्युत्तम रसमयी उपासना की निपुणता को प्राप्त कर कब मैं धन्य शिरोमणि हूंगा ? ॥२.२४॥
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