Photo by Gopinath Das.
वृन्दाकाननकाननस्य परमा शोभा परातः परा
नन्दत्वद्गुणवृन्दमेव मधुरं येनानिशं गीयते ।
हा वृन्दावन कोटिजीवनमपि त्वत्तोऽतितुच्छं यदि
ज्ञातं तर्हि किमस्ति यत्तृणकवच्छक्येत नोपेक्षितुम् ॥
हे श्रीवृन्दावन ! आपके वन की शोभा सर्वोत्कृष्ट है । हे परमानन्द ! आपके मधुर गुणों को जो निशि दिन गान करता है एवं, हे वृन्दावन ! जो कोटि जीवन भी आपके सामने तुच्छ जानता है, फिर उसके लिये संसार में ऐसी कौन सी वस्तु है जिसकी वह तृण के समान उपेक्षा नही कर सकता ? ॥२.२८॥
स्वात्मेश्वर्या ममाद्य प्रणयरसमहामाधुरीसारमूर्त्या
कोऽपि श्यामः किशोरः कनकवररुचा श्रीकिशोर्या कयापि ।
क्रीडत्यानन्दसारान्तिमपरमचमत्कारसर्वस्वमूर्ति-
र्नित्यानङ्गोत्तरङ्गैर्यदधि भज तदेवाद्य वृन्दावनं भोः ॥
आनन्दसार के परमकाष्ठा-भूत परम चमत्कार की सर्वस्व-मूर्ति कोई एक श्याम किशोर नित्य अनङ्ग तरङ्गों में उन्मत्त होकर मेरी प्राणेश्वरी आद्य प्रणय रस महा माधुर्य सार मूर्ति किसी स्वर्ण कान्ति विशिष्ट किशोरी के साथ जहां नित्य क्रीड़ा करता है, आज ही से उसी श्रीवृन्दावन का भजन कर ॥२.२९॥
दलितेन्दीवरसुवृन्दनिन्दितश्रीः ।
वृन्दावन नवकुञ्जे
किशोरमिथुनं तदेव भज रसिकम् ॥
श्रीवृन्दावन के नवीन कुंजों में उन रसिक युगल किशोर की चिन्ता कर, जिन में से एक की देह कान्ति नूतन स्वर्ण तथा चम्पकावलि को निन्दित कर्ती है, और दूसरे की देह ज्योति प्रफुल्लित कमल की शोभा की परिचर्या कर ॥२.३०॥
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