श्रीवृन्दावन-महिमामृतम्
अथ द्वितीयं शतकम्
रङ्कोऽपि स्यामतुल्यः परमिह न परत्राद्भुतानन्तभूतिः ।
शून्योऽपि स्यामिह श्रीहरिभजनलवेनातितुच्छार्थमात्रे
लुब्धो नान्यत्र गोपीजनरमणपदाम्भोजदीक्षासुखेऽपि
श्रीवृन्दावन में भले ही मैं कृमि होकर रहूंगा, किंतु अन्यत्र चिदानन्द देह के लिये भी प्रार्थना नहीं करता हूं । यहाम् अतुलनीय दरिद्र की भले ही इच्छा करता हूं, किंतु और स्थान पर अनन्त विभूतियों की भी इच्छा नही है । भले ही श्रीहरिभजनलवशून्य होकर, अर्थात् लवमात्र भी हरिभजन न कर, अतितुच्छ विषयों में लोलुप हुआ ब्रज में वास करूंगा, तथापि श्रीगोपीजनरमण के पादपद्मों की दीक्षा के सुख में भी लुब्ध होकर अन्यत्र नहीं जाऊंगा ॥२.१॥
र्दिव्यानेकमयूरकोकिलशुकाद्यानन्दमाद्यत्कलाः ।
दिव्यानेकसरः सरिद्गिरिवरप्रत्यग्रकुञ्जावली-
र्दिव्या काञ्चनरत्नभूमिरपि मां वृन्दावनेऽमोहयत् ॥
श्रीवृन्दावन में जो दिव्य दिव्य अनेक विचित्र पुष्प एवं फलशाली वृक्ष-लताओं का समूह है, दिव्य दिव्य अनेक मोरों कोकिलाओं एवं शुकादि पक्षियों की जो आनन्द उन्मत्त ध्वनि है, दिव्य दिव्य अनेक सरोवरों, नदियों, पर्वतों से शोभित जो नवीन नवीन कुञ्ज समूह हैं एवं दिव्य स्वर्णमयी जो रत्नभूमि है, इन्हों ने मुझे मोहित कर लिया है ॥२.२॥
चिदानन्दाभासः फलकुसुमपूर्णद्रुमलताः ।
खगश्रेणीः सामस्वरकलकलाश्चिद्रससरित्
सरांसि श्रीवृन्दावनमनु मनो मे विमृशतु ॥२.३॥
श्रीवृन्दावन स्वच्छ एवं अति विचित्र चिन्तामणियों से रचित भूमण्डल को, चिन्मय आनन्द विस्तार करने वाले फल पुष्प युक्त वृक्ष-लताओं को, सामवेद के गान की अव्यक्त मधुर ध्वनि से कलकलायमान, अर्थात् गुञ्जार करते हुए पक्षिसमूह को एवं चिन्मय रसयुक्त नदी तथा जलाशयों को मेरा मन स्मरण करे ॥२.३॥
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