Thursday, July 8, 2010

श्रीवृन्दावन-महिमामृतम् २.२५-२७


सौन्दर्यादिमहाचमत्कृतिनिधी दिव्यौ किशोरौ महा
गौरश्यामतनुच्छवी निशिदिवा यत्रैव चाक्रीडतः ।
यत्रैवाखिलदिव्यकाननगुणोत्कर्षोऽति काष्ठां गतस्
तद्वृन्दाविपिनं कदानु मधुरप्रेमानुवृत्त्या भजे ॥
जहां सौन्दर्यादि के चमत्कार का समुद्र है एवं गौर श्याम विग्रह महाकान्तिशाली दिव्य युगल किशोर निशिदिन क्रीड़ा कर रहे हैं, जहां समस्त अप्राकृत बनों का गुण समूह चरम काष्ठा को प्राप्त हुआ है, उस श्रीवृन्दावन को मैं कब मधुर प्रेम की अनुवृत्ति के द्वारा भजन करूंगा ? ॥२.२५॥



अनादौ संसारे कति नरकभोगा न विहिताः
कियन्तो ब्रह्मेन्द्राद्यतुलसुखभोगाश्च न्यक्कृताः ।
तदास्मिन्न् एकस्मिन् वपुषि सुखदुःखे न गणयन्
सदैव श्रीवृन्दावनमखिलसारं भज सखे ॥
हे सखे ! इस संसार में कितने नरक भोग नहीं किये हैं ? कितने कितने ब्रह्मा , इन्द्र आदि के अतुल सुख भोगादि का तिरस्कार नहीं किया है ? अत एव इस वर्तमान एक शरीर के सुख-दुःख को न गिनता हुआ सदा परम सार श्रीवृन्दावन में वास कर ॥२.२६॥




श्रीवृन्दावनवासिपादरजसा सर्वाङ्गमागुण्ठयन्
श्रीवृन्दावनमेकमुज्ज्वलतमं पश्यन् समस्तोपरि ।
श्रीवृन्दावनमाधुरीभिरनिशं श्रीराधिकाकृष्णयोर्
अप्य् आवेशमनुस्मरन्न् अधिवस श्रीधाम वृन्दावनम् ॥
श्रीवृन्दावन वासियों की चरण धूलि में सर्वाङ्गों को धूसरित करके एक मात्र उज्ज्वलतम श्रीवृन्दावन को ही सर्वोपरि जानते हुए, श्रीवृन्दावन के माधुर्य में सर्वदा श्रीराधा-कृष्ण का आवेश अनुस्मरण करते करते श्रीधाम वृन्दावन में ही वास कर ॥२.२७॥


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