Wednesday, July 7, 2010

श्रीवृन्दावन-महिमामृतम् २.१९-२१



सर्वाभासज्योतिषोऽनन्तपार-
स्यान्तर्ज्योतिर्वैष्णवानन्दसान्द्रम् ।
तस्याप्यन्तर्ज्योतिरस्त्यप्रेम-
यानन्दास्वादं तत्र वृन्दाटवीयम् ॥

अनन्तपार सर्व उद्भासी ब्रह्मज्योति की आन्तरज्योति सार आनन्दसान्द्र विष्णुधाम परव्योम है, उसका भी आन्तरतर ज्योति है अपरिमित आनन्द का आस्वादनमय ब्रजमण्डल, उसका भी आन्तरतम सारात्सार यह श्रीवृन्दाटवी है ॥२.१९॥



किं क्रीडैव शरीरिणी स्मरकला किं दोहिनी किं रतिः
स्वाभा मूर्तिमती किमद्भुतमनो जन्मास्त्रविद्यैव वा ।
किं वा जीवनशक्तिरेव सतनुः श्यामस्य न ज्ञायते
सा राधा विजरीहरीति हरिणा वृन्दावनेऽहर्निशम् ॥

यह क्या देहविशिष्टा कीड़ा ही है या शरीर धारण किये हुए कोई कामकला ? सुदीप्तियुक्त मूर्तिमती यह रति ही है क्या ? या अद्भुत कामास्त्र विद्या ही प्रादुर्भूत हुई है ? अथवा देहधारण कर श्रीश्यामसुन्दर की जीवन शक्ति ही प्रकट हुई है, यह कुछ भी तो नहीं जाना जा सकता । हां, वह श्रीराधा ही श्रीहरि के सहित निशिदिन श्रीवृन्दावन में विहार कर रही हैं ॥२.२०॥



सर्वप्रेमरसैकबीजविलसद्विप्रुड्महामाधुरी
पूर्णस्वर्णसुगौरमोहनमहाज्योतिःसुधैकाम्बुधीन् ।
एकैकाङ्गत उन्मदस्मरकलारङ्गान् दुहन्त्य् अद्भुतान्
वृन्दाकाननसंप्लवान् हृदि मम श्यामप्रिया खेलतु ॥

श्रीवृन्दावन प्लावन करने वाले एवं सर्व प्रेमरस के मुख्य बीज रूप बिन्दुओं से भरपूर, महामाधुर्य पूर्ण स्वर्ण सदृश गौर मोहन महा ज्योति पूर्ण अमृत रस के एक मात्र समुद्र को प्रत्येक अङ्ग से प्रकाशित करती हुई श्रीश्यामप्रिया मेरे हृदय में विहार करें ॥२.२१॥


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