Tuesday, July 20, 2010

श्रीवृन्दावन-महिमामृतं २.५५-५७



मुञ्चन् शोकाश्रुधारां सततमरुचिमान् ग्रासमात्रग्रहेऽपि
क्षिप्तो बद्धो हतो वा गिरिवदविचलः सर्वसङ्गैर्विमुक्तः ।
नैष्किञ्चन्यैककाष्ठां गत उरुतरयोत्कण्ठया चिन्तयन् श्री-
राधाकृष्णाङ्घ्रिपङ्केरुहदलसुषमां कोऽपि वृन्दावनेऽस्ति ॥

निरन्तर शोकाश्रु बहाता हुआ, एक ग्रास मात्र आहार में भी अरुचिवाला, उन्मत्त, बद्ध, हत तथा पर्वत की भांति अचल एवं सर्व सङ्ग रहित, परम निष्किञ्चनता की पराकाष्ठा प्राप्त, अत्यन्त उत्कण्ठा से श्रीराधा-कृष्ण के चरण्विशेषों की शोभा का जो ध्यान करता है, ऐसा कोई भाग्यवान पुरुष भी श्रीवृन्दावन में विराजमान है ॥२.५५॥



मालां कण्ठेऽर्पय सुललितचन्दनं सर्वगात्रे
ताम्बूलं प्राशय कुरु सुखं साधु संवीजनेन ।
व्यत्याश्लेषात् सुखशायियोर्लालयन्नङ्घ्रिमित्थं
राधाकृष्णौ परिचर रहः कुञ्जशय्यामुपेतौ ॥

श्रीराधा-कृष्ण निर्जन कुञ्ज शय्या पर विराजमान हैं, अनेक कण्ठ में सुगन्धित माला अर्पण कर, उनके सर्वाङ्गों पर सुललित चन्दन लेपन कर, श्रीमुख में ताम्बूल प्रदान कर एवं मृदु मधुर बीजने के द्वारा उन्हें सुखी कर, वे सम्प्रज्ञात गाढ़ आलिङ्गन पूर्वक सुख से शयन कर रहे हैं, उनके चरण कमलों की सेवा कर, इस प्रकार श्री युगल किशोर परिचर्या कर ॥२.५६॥



राधाकृष्णौ रहसि लतिकामन्दिरे सूपविष्टौ
रत्याविष्टौ रसवशलसद्दृष्टिवागङ्गचेष्टौ ।
दृष्ट्वान्यादृग्वरविलसितौ साधु यान्तीर्बहिस्ता-
स्ताभ्यामात्ताः सहसमवनम्याः सह्रीसौख्यमग्नाः ॥

एकान्त लता मन्दिर में श्रीराधा-कृष्ण विराजमान हैं रत्यावेश होने से रस वश उनकी दृष्टि, बोलिन एवम् अङ्ग चेष्टा अत्यन्त शोभा दे रही है, उनके अति मनोहर विलास का दर्शन कर दूसरी ओर देखती हुई वे सखियां बाहर आने लगीं, उनको श्री युगल किशोर ने हंसते हंसते पकड़ लिया, तब वे लज्जायुक्त एवं सौख्य रस में मग्न हो सिर झुकाकर खड़ी हो गई ॥२.५७॥


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