Sunday, July 18, 2010

श्रीवृन्दावन-महिमामृतं २.५२-५४


Photo by Gopinath Das.



त्यक्त्वा सर्वान् गृहद्वारसकलगुणालङ्कृतस्त्रीसुतादीन्
सर्वत्रात्यन्तसंमाननमथ महतः सत्कुलाचारधर्मान् ।
मातापित्रोर्गुरूणामपि च नहि मनाग् आग्रहैः कोमलात्मा
यो यायादेव वृन्दावनमथमखिलैः स्तूयते धन्यधन्यः ॥


गृह द्वार स्वर्ण गुण युक्त स्त्री पुत्रादि सब की त्याग कर एवं सर्वत्र महान् सम्मान् तथा बड़े बड़े सत्कुलाचार धर्मादि को तिलाञ्जली देकर, माता पिता एवं गुरु जनों के आग्रह में जरा भी कोमल चित्त न होकर जो श्रीवृन्दावन जा सकता है, सब लोक उसकी प्रशंसा करते हैं, एवं उसे धन्यवाद देते हैं ॥२.५२॥




नो शृण्वन् नैव गृह्णन् सकलतनुभृतां क्वापि दोषं गुणं वा
वृन्दावनस्थसत्त्वान्यखिलगुरुधिया संनमन् दण्डपातैः ।
त्यक्ताशेषाभिमानो निरवधि चरमाकिञ्चनः कृष्णराधा
प्रेमानन्दाश्रु मुञ्चन् निवसति सुकृती कोऽपि वृन्दावनान्तः ॥


समस्त जीवों के दोषों तथा गुणों को न कहीं सुनता हुआ और न ही ग्रहण करता हुआ, सब वृन्दावन वासी प्राणियों में गुरु बुद्धि से दण्डवत् प्रणाम करता हुआ, सब अभिमान छोड़ कर एवं निरंतर परम निष्किञ्चन भाव से श्रीराधा-कृष्ण के प्रेमानन्द में अश्रु बहाता हुआ कोई पुण्यात्मा ही श्रीवृन्दावन में वास करता है ॥२.५३॥




क्रन्दन्नार्तस्वरेण क्षितिषु परिलुठन् संनमन् प्राणबन्धुं
कुर्वन् दन्ते तृणान्यादधदनुकरुणादृष्टये काकुकोटिः ।
तिष्ठन्नेकान्तवृन्दाविपिनतरुतले सव्यपाणौ कपोलं
न्यस्याश्रुण्येव मुञ्चन्नयति दिननिशां कोऽपि धन्योऽत्यनन्यः ॥

क्रन्दन एवं आर्तस्वर से भूमि पर लोट-पोट होते होते, प्राण बन्धु को दण्डवत् प्रणाम करते करते, दांतों में तृण धारण कर कृपा कटाक्ष के लिये कोटि कोटि दीन वचन उच्चारण करता हुआ, श्रीवृन्दावन के वृक्ष वृक्ष के नीचे एकान्त वासी होकर, हाथ में कपोल रख कर आंसू बहाता हुआ, जो कोई दिन रात व्यतीत करता है, वह अति अनन्य एवं धन्य है ॥२.५४॥


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