Tuesday, July 27, 2010

श्रीवृन्दावन-महिमामृतं २.७९-८१




कलिन्दगिरिनन्दिनीतटकदम्बकुञ्जोदरे
दरेण निलिनीभ्रमान्मधुकरादि वा धावतः ।
स कृष्ण इति कृष्ण ते शरणमागतास्मीति वाक्
प्रियासु परिरम्भणादति मुमोद दामोदरः ॥

श्रीयमुना के किनारे कदम्ब कुञ्ज में नलिनी के भ्रम से दौड़ते हुए भ्रमर के भय से, “वह कृष्ण वर्ण भ्रमर मेरी ओर आ रहा है, अत एव हे कृष्ण ! मैं ने तुम्हारी शरण ग्रहण कर ली है” इस प्रकार वाक्य उच्चारण करने वाली प्रियतमा के सुन्दर आलिङ्गन से दामोदर अति प्रसन्न हुए ॥२.७९॥




श्रीवृन्दाविपिने महापरिमलप्रोत्फुल्लमल्लीवने
श्रीराधामुरलीधरावति रसोल्लासान् मिथः स्पर्शतः ।
आसीनौ कुसुमैः परस्परवपुर्भूषां विचित्रां मुहुः
कुर्वन्तौ रतिकौतुकेन विगमाल् लब्धानवस्थौ भजे ॥

श्रीवृन्दावन में महा सुगन्ध विस्तार करने वाले खिले हुए मल्लिका वन में श्रीराधा मुरलीधर अत रसोल्लास वश सम्प्रज्ञात स्पर्श कर रहे हैं । वे दोनों कुसुमों के द्वारा बारम्बार एक दूसरे के लिय विचित्र भूषण निर्माण कर रहे हैं । रति कौतुक वश उनके वस्त्र भूषण स्थान भ्रष्ट हो गये हैं, अतः वे अनवस्था को प्राप्त हो रहे हैं, ऐसे श्रीयुगलकिशोर का मैं भजन करता हूं ॥२.८०॥




श्यामानन्दरसैकसिन्धुबुडितां वृन्दावनाधीश्वरीं
तत्स्वानन्दरसाम्बुधौ निरवधौ मग्नं च तं श्यामलम् ।
तादृक् प्राणपरार्धवल्लभयुगक्रीडावलोकोन्मदा
नन्दैकाब्धिरसभ्रमत्तनुधियो ध्यायामि तास्तत्पराः ॥

श्यामानन्द रस सिन्धु में निमज्जिता श्रीराधा का तथा श्रीराधा के असीम आनन्द रस समुद्र में मग्न उस श्री श्यामसुन्दर का और कोटि प्राण से भी अत्यन्त प्रियतम उन श्रीयुगल किशोर की क्रीड़ा का दर्शन कर, उन्मत्त कारी आनन्द सागर रस में जिन के देह एवं बुद्धि घूर्णित हो रहे हैं, उन्हीं श्रीराधा कृष्ण परायण सखियों का में ध्यान करता हूं ॥२.८१॥


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