Saturday, July 24, 2010

श्रीवृन्दावन-महिमामृतं २.६७-६९

Photo by Gopi Dasi.


वरमिह वृन्दारण्ये सुवराकी मदनमोहनद्वारि ।
अपि सरमापि रमाप्रियसख्यपि नान्यत्र नो रमापि स्याम् ॥

इस श्रीवृन्दावन में श्रीमदनमोहन के दरवाजे पर तुच्छ कुक्करी होकर भले ही रहूंगा, तथापि और जगह लक्ष्मी की प्यारी सखी अथवा स्वयं लक्ष्मी बन कर भी रहने की इच्छा नहीं है ॥२.६७॥




प्रत्यङ्गोच्छलदद्भुतनवकाञ्चनचन्द्रचन्द्रिकाजलधिः ।
नवकैशोरचमत्काररूपा वृन्दावनेश्वरी स्फुरतु ॥

जिन के प्रति अङ्ग से उज्ज्वल अद्भुत नवीन स्वर्ण चन्द्र चन्द्रिका का सागर उच्छलित हो रहा है, वही नवीन कैशोर के चमत्कार की हेतु रूपा श्रीवृन्दावनेश्वरी मेरे हृदय में स्फुरित हों ॥२.६८॥




कुर्वन्ति सर्वनाशं ध्रुवमतिमायामयप्रमदाः ।
तच्छब्दशून्य वृन्दारण्यप्रदेशे वसेत्ततश्चतुरः ॥

अत्यन्त मायाशीला स्त्रियां निश्चय ही सर्वस्व नाश कर देती हैं, अतः चतुर व्यक्ति को इस माया विस्तारी नारी शब्द शून्य श्रीवृन्दावन प्रदेश में वास करना उचित है ॥२.६९॥


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