Monday, July 26, 2010

श्रीवृन्दावन-महिमामृतं २.७३-७५



Photo by Gopi Dasi

वृन्दारण्यमनन्यभावरसिकः श्रीराधिकानागरे
वैदग्धीरससागरे नवनवानङ्गैकखेला करे ।
राधायाः क्षणकोपकातरतरे तद्भ्रूविलासाङ्कुशाहह
कृष्टात्मेन्द्रियसर्वगात्र उरुभिर्विघ्नैरचाल्यः श्रये ॥
जो वैदग्धी रस का समुद्र है एवं नव नव काम रस में क्रीड़ा परायण है, जो श्रीराधा के किञ्चित् कोप से ही अतिकातर हो जाता है, एवं श्रीराधा के भ्रू विलास रूप अङ्कुश से जिसका आत्मा, इन्द्रिय तथा सर्व देह आकृष्ट हो जाता है, उसी श्रीराधा नागर में अनन्य भाव रसिक होकर एवं अनेक विघ्नों में भी अविचल रहकर मैं इस श्रीवृन्दावन का आश्रय लेता हूं ॥२.७३॥



मदनमोहनवक्त्रसुधाकरे मुदितगोपवधूकुमुदाकरे ।
सरसराधिकया परिचुम्बिते मम मनो नवकुञ्जविलम्बिते ॥
नव निकुञ्ज विलासी गोप वधू रूप कुमुदिनी वृन्द को आनन्दित करने वाले एवं श्रीराधा के द्वारा परिचुम्बित श्रीमदनमोहन के मुख चन्द्र में मेरा मन लगा रहे ॥२.७४॥



निलयनाय निकुञ्जकुटीगतां वरसखी नयनेङ्गितसूचिताम् ।
सुमिलितां हरिणा स्मर राधिकामनु च तां परिरम्भितचुम्बिताम् ॥२.७५॥
छिपने के लिये निकुञ्ज कुटी में जाने पर एवं श्रेष्ठ सखी ललिता के नेत्रों के इशारे को पाकर, श्रीहरि के सहित सुमिलिता एवं तदनन्तर श्रीहरि के द्वारा आलिङ्गित एवं चुम्बिता श्रीराधा को स्मरण कर ॥२.७५॥


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