Tuesday, July 27, 2010

श्रीवृन्दावन-महिमामृतं २.७६-७८


Photo by Gopi Dasi.





मदनकोटिमनोहरमूर्ति-
नानवलताभवनोदरवर्तिना ।
प्रियसखीमिषनन्दितराधिकां 
स्मर बलाद्रमितां प्रणयाधिकाम् ॥

कोटि कामदेव सदृश मनोहर मूर्ति, नव लता गृह मध्यवर्ती श्रीहरि अत्यन्त प्रणयवती आनन्द पूर्ण श्रीराधा से प्रिय सखी के बहाने बल पूर्वक रमण कर रहे हैं, ऐसा स्मरण कर ॥२.७६॥







प्रियतमेन निजप्रियकिङ्करी-
जनसुवेशधरेण पदाम्बुजम् ।
किमपि लालयता रमितां 
स्मराम्यनुचरीं क्षिपतीमथ राधिकाम् ॥

प्रियतम अपनी प्रिय किङ्करी का सुवेश धारण कर श्रीराधा के पादपद्म को किसी अनिर्वचनीय मधुर भाव से लालन करते करते श्रीराधा को रमण करा रहे हैं, जो अपनी अनुचरी के प्रति तर्जन कर रही हैं, मैं उनका स्मरण करता हूं ॥२.७७॥







एकैकाङ्गच्छटाभिर्भरितदशदिगाभोगमत्युन्मदाढ्यं
प्रेमानन्दात्मकाभिर्विद्रुतकनकसूद्भास्वराभिः किशोरम् ।
तद्धामश्यामचन्द्रोरसि रसविवशं केलिशिञ्जानभूषं
भ्रश्यद्वासस्त्रुटत्स्रक् स्फुरति रतिमदान् निस्त्रपं कुञ्जसीम्नि ॥

जिस की प्रमानन्दात्मक, उत्तम स्वर्ण सदृश, सुन्दर तथ देदीप्यमान प्रत्येक अङ्ग च्छता से दशों दिशाएं परिपूर्ण हो रही हैं, वही अति उन्मादी किशोर मूर्ति रस विवश तथा केलि भूषण शोभित ज्योतिर्मय श्रीराधा विग्रह श्याम चन्द्र के वक्षस्थल पर रति मद पूर्णता से निर्लज्ज होकर भ्रष्ट वसन और छिन्न माल होकर निकुञ्ज में शोभा विस्तार कर रहा है ॥२.७८॥


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