Photo by Gopi Dasi.
तद्भयचकितः सततं निवसति वृन्दावनेऽतिनिर्विण्णः ॥
विष्णु माया से उत्तीर्ण होकर भी बुद्धिमान पुरुष स्त्रियों में विश्वास न करके अत्यन्त वैराग्यवान होकर नारी के भय से चकित चित्त हुआ निरन्तर श्रीवृन्दावन वास करता है ॥२.७०॥
नहि वृन्दावनवासिषु दोषं पश्यन्ति चिद्घनेषु धीराः ॥
पर स्त्री एवं धन हरण करने वाले, और कपट से महा प्रहार करने वाले, चिद्घनस्वरूप श्रीवृन्दावन वासियों में धीर पुरुष दोष नहीं देखता हैं ॥२.७१॥
किं तद्देहमपास्य गेहममतां यन् न त्वयि न्यस्यते ।
किं तत् पौरुषमौरसं च तनयं विक्रीय न स्थीयते
येन त्वयथ तत्त्ववित् स खलु को यस्ते तृणं नाश्रयेत् ॥
हे वृन्दावन ! जो मुख सदा आपकी स्तुति नहीं करता है उसकी क्या सुन्दरता ? गृह ममता को परित्याग करके जो देह तुम्हारे में पात नहीं करता है, वह देह कैसा ? स्ववीर्य पुत्र को भी बेचकर जो वृन्दावन वास नहीं करता, तो उसका पुरुषार्थ ही कैसा ? वह क्या तत्त्व वेत्ता कहा जा सकता है, जो श्रीवृन्दावन के तृण का भी आश्रय नहीं ले सकता ? ॥२.७२॥
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