Sunday, July 25, 2010

श्रीवृन्दावन-महिमामृतं २.७०-७२


Photo by Gopi Dasi.


उत्तीर्य विष्णुमायामपि वनितायामविश्वसन् प्राज्ञः ।
तद्भयचकितः सततं निवसति वृन्दावनेऽतिनिर्विण्णः ॥

विष्णु माया से उत्तीर्ण होकर भी बुद्धिमान पुरुष स्त्रियों में विश्वास न करके अत्यन्त वैराग्यवान होकर नारी के भय से चकित चित्त हुआ निरन्तर श्रीवृन्दावन वास करता है ॥२.७०॥




परदारवित्तहारिषु सत्यपदेशे महाप्रहारिषु च ।
नहि वृन्दावनवासिषु दोषं पश्यन्ति चिद्घनेषु धीराः ॥

पर स्त्री एवं धन हरण करने वाले, और कपट से महा प्रहार करने वाले, चिद्घनस्वरूप श्रीवृन्दावन वासियों में धीर पुरुष दोष नहीं देखता हैं ॥२.७१॥




वृन्दाकानन काऽऽनने सुभगता न स्तौति यस्त्वां सदा
किं तद्देहमपास्य गेहममतां यन् न त्वयि न्यस्यते ।
किं तत् पौरुषमौरसं च तनयं विक्रीय न स्थीयते
येन त्वयथ तत्त्ववित् स खलु को यस्ते तृणं नाश्रयेत् ॥

हे वृन्दावन ! जो मुख सदा आपकी स्तुति नहीं करता है उसकी क्या सुन्दरता ? गृह ममता को परित्याग करके जो देह तुम्हारे में पात नहीं करता है, वह देह कैसा ? स्ववीर्य पुत्र को भी बेचकर जो वृन्दावन वास नहीं करता, तो उसका पुरुषार्थ ही कैसा ? वह क्या तत्त्व वेत्ता कहा जा सकता है, जो श्रीवृन्दावन के तृण का भी आश्रय नहीं ले सकता ? ॥२.७२॥


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