Sunday, July 18, 2010

श्रीवृन्दावन-महिमामृतं २.४९-५१


Photo by Gopinath Das.


प्रेमानन्दोज्ज्वलरसमयज्योतिरेकार्णवान्त-
स्तदात्म्येन स्फुरतु बहुधाश्चर्यवृन्दावनं मे ।
कुञ्जे कुञ्जे मधुरं मधुरं तत्र खेलत्किशोर-
द्वन्द्वं गौरासितरुचिमनस्तद्रसार्हं क्रियान्मे ॥

प्रेमानन्द के उज्ज्वल रस विशिष्ट ज्योति पूर्ण किसी एक अनिर्वचनीय समुद्र गर्भ स्थित आश्चर्य मय श्रीवृन्दावन , उसी प्रकार के ज्योतिर्मय समुद्र के साथ तादात्म्य भाव को प्राप्त होकर अनेक प्रकार से मेरे निकट स्फुरित हो, एवं उसके प्रत्येक कुञ्ज में मधुरातिमधुर लीला विहारी गौर श्याम श्री युगल किशोर मेरे मन को उस रस में आविष्ट कर दें, यही प्रार्थना है ॥२.४९॥



दविष्ठे यस्तिष्ठेदति कुकृतिनिष्ठः कुविषये
सकृद्वृन्दाटव्यास्तृणकमपि वन्देत सुकृती ।
स तत्प्राणस्योच्छृङ्खलनिखिलशक्तेः करुणया
ध्रुवं देहस्यान्ते हरिपदमलभ्यं च लभते ॥

दूर देश में रहते हुए भी, कुविषयों में कुकर्म परायण होते हुए भी, यदि कोई सुकृती एक बार भी श्रीवृन्दावन के क्षुद्र तृण की भी वन्दना करे, तो देहान्त पीछे वह उन तृणादि के प्राण स्वरूप, असीम निखिल शक्ति पूर्ण श्रीराधा-कृष्ण की कृपा से दुर्लभ श्रीहरि के चरण कमलों को प्राप्त कर लेता है ॥२.५०॥



कुबेराणां कोटिर्हसति धनसम्पत्तिभिरहो
तिरस्कुर्याद्वर्यानपि सुरगुरून् बुद्धिविभवैः ।
अशोच्यः स्त्रीपुत्रादिभिरसम ईड्यो हरिरसा-
च्छुकप्रह्लादाद्यै रतिकृदिह वृन्दावनवने ॥

इस श्रीवृन्दावन में प्रीति करने वाला पुरुष, धन सम्पत्ति के द्वारा कोटि कोटि कुबेरों का भी उपहास करता है, बुद्धि सम्पत्ति के द्वारा देवताओं के गुरु बृहस्पति का भी तिरस्कार कर सकता है, और स्त्री पुत्रादि कुटुम्बी भी उसके लिये शोक नहीं करते हैं, वह श्रीहरि रस विषय में श्रीशुक प्रह्लादादि के द्वारा भी प्रशंसनीय है ॥२.५१॥


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