द्वयमेव निकुञ्जमण्डले नवगौरासितनागरं भजे ॥
जो प्रति निमेष में महा अद्भुत मदनोन्माद प्रकाशित कर रहा है, उसी निकुञ्ज मण्डल में स्थित गौर नील वर्ण ज्योतिर्मय नागर युगल का मैं भजन करता हूं ॥२.८२॥
शारीकीरौ क्वचित् क्वापि च शिखिमिथुनं ताण्डवं शिक्षयन्तौ ।
पश्यन्तौ क्वाप्यपूर्वागतसदनुचरी दर्शितं सत् कलौघं
तौ श्रीवृन्दावनेशौ मम मनसि सदा खेलतां दिवयलीलौ ॥
जो कहीं अति सुन्दर छोटे छोटे वृक्ष लताओं में जल सिञ्चित कर रहे हैं, और कहीं तोता मैण्ना को पाठ पढ़ा रहे हैं, कहीं मयूर मयूरी को ताण्डव नृत्य शिक्षा कर रहे हैं, तो कहीं नवागत दासी के द्वारा प्रदर्शित सुन्दर सुन्दर कला विद्या का दर्शन कर रहे हैं, इस प्रकार से दिव्य लीला विनोदी वे श्रीवृन्दावनेश्वर श्रीयुगल किशोर मेरे मन में सर्वदा क्रीड़ा करें ॥२.८३॥
नवस्तवकमण्डितां नवमरन्दधारां लताम् ।
तमालतरुसङ्गतां समवलोक्य वृन्दावने
पतिष्णुमतिविह्वलामधृत कापि मे स्वामिनीम् ॥
नवीन लता में नवीन कलिका निकल रही है, और बहु कुसुम विकाश के छल रूप हास्य से संशोभित है, वह नव स्तवक से मण्डित है, एवं उस से नव मधु धारा निसृत हो रही है, इस प्रकार की लता का तरुण तमाल वृक्ष के साथ मिलन देख कर, अति विह्वल चित्त होकर मेरी स्वामिनी श्रीवृन्दावन में मूर्च्छित होकर जब गिरने लगीं, तब किसी सखी ने उन्हें धारण कर लिया ॥२.८४॥
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