Photo by Abha Shahra.
परीहासेऽप्यन्याप्रियकथनमूकोऽतिवधिरः
परेषां दोषानुश्रुतिमनु विलोकेऽन्धनयनः ।
शिलावन् निश्चेष्टः परवपुषि बाधालवविधौ
कदा वत्स्याम्यस्मिन् हरिदयितवृन्दावनवने ॥
परिहास में भी दूसरे को अप्रिय कहने में गूंगे के समान होकर, दूसरे के दोष सुनने में बहरे के समान होकर, दूसरे के दोष देखने में अन्धे के सदृश होकर, एवं दूसरे के शरीर को जिससे लेशमात्र भी कष्ट न पहुंचे, इस विषय में पत्थरवत् निश्चेष्ट होकर कब मैं हरि के प्यारे इस श्रीवृन्दावन में वास करूंगा ? ॥२.१६॥
त्यक्त्वाप्यहो जातिकुलादिकानि ।
भुक्त्वा श्वपाकैरपि थुत्कृतानि
वृन्दाटवीवासमहं करिष्ये ॥
अति दुसह दुख समूह को सहन करके भी, जाति कुलादि को त्याग कर भी, एवं चाण्डाल का थूका हुआ झूंठा आहार खाकर भी मैं श्रीवृन्दावन वास करूंगा ॥२.१७॥
नाहं गमिष्यामि सतां समीपतो
नाहं वदिष्यामि निजं कुलादिकम् ।
नाहं मुखं दर्शयितास्मि कस्यचित्
वृन्दाटवी वासकृतेऽति साहसी ॥
सज्जनों के समीप भी नहीं जाऊंगा (अथवा सत्-पुरुषों से दूर नहीं जाऊंगा) मैं अपने कुलादि का परिचय नहीं दूंगा । श्रीवृन्दावन के वास करने में अति साहसी होकर अन्य किसी को मुख नहीं दिखलाऊंगा ॥२.१८॥
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