Sunday, July 4, 2010

श्रीवृन्दावन-महिमामृतम् २.१०-१२


Photo by Abha Shahra.

राधाकृष्णौ परमकुतुकाद्यल्लतापादपानां
चित्वा पुष्पादिकमुरूविधं श्लाघमानौ जुषाते ।
स्नानाद्यं यत् सरसि कुरुतः खेलतो यत् खगाद्यैः
वृन्दारण्यं चरमपरमं तन्न सेवेत को वा ॥

परम कौतुक वशतः श्रीराधा-कृष्ण जहां के वृक्ष लताओं के अनेक विध पुष्पादि चयन कर प्रशंसा पूर्वक उन्हें अपनी सेवा में नियोजित करते हैं, जहां के सरोवरों में वे स्नानादि करते हैं एवं जहां के पक्षियों के साथ वे खेलते हैं, उस सर्व सुन्दर श्रीवृन्दावन का सेवन किसके लिये उचित नहीं है ? ॥२.१०॥



आबाल्यं जलसेचनेन वरणेनाबालनिर्माणतः
स्वेन श्रीकरपल्लवेन मृदुणा श्रीराधिकामाधवौ ।
यान् संवर्ध्य विहाय नव्यकुसुमाद्य् अलोक्य सन्नर्मभिर्
मोदेते सुलतातरून् अहह तान् वृन्दावनीयान् नुमः ॥

शिशुकाल से अपने कोमल कर पल्लवों के द्वारा आवरण तथा आलवाल निर्माण करते हुए समें जल सिञ्चित कर श्री राधा माधव ने जो समस्त सुमनोहर वृक्ष-लतादि अति यत्न पूर्वक वर्धित कर विवाह दिये थे, एवं जिनके नवीन नवीन कुसुमादि देखकर दोनों परिहास वचन बोलते बोलते आनन्द प्राप्त करते हैं, हम श्रीवृन्दावन के उन लता-वृक्षों को नमस्कार करते हैं ॥२.११॥



द्रवन्ति हरिभावतस्तरणतारणेऽति क्षमास्
ततो द्रुमतरुप्रथा व्रततयश्च कृष्णव्रताः ।
स्फुरन्ति हरिणा इह प्रकटकृष्णसारप्रथा
मृगाश्च पदमार्गिणः प्रविलसन्ति वृन्दावने ॥

श्रीवृन्दावन में श्रीहरि के भाव वश द्रवीभूत हो जाने से अन्वर्थ नामधारी द्रुम विराजमान हैं, एवंअपनी तथा दूसरे की रक्षा करने से उनका तरु नाम भी यार्थ ही हुआ है । लता समूह ने कृष्ण व्रत धारण कर व्रतती नाम सार्थक किया है, यहां के हरिणों ने श्रीकृष्ण को ही सारातिसार जाना है, अतः कृष्णसार नाम को प्राप्त हुए हैं, एवं श्रीकृष्ण के चरण चिह्नों का मार्गण कर उन्होंने मृग नाम की भी सार्थकता सम्पादन की है ॥१.१२॥


1 comment:

Unknown said...

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